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लेखनी कविता - साँझ-17 - जगदीश गुप्त

साँझ-17 / जगदीश गुप्त


प्रत्येक हृदय स्पंिदत हो,
मेरे कंपन की गति पर,
छाले मेरी करूणा का,
संदेश देश-देशान्तर।।२४१।।

सापेक्ष विश्व निमिर्त है,
कल्पना-कला के लेखे।
यह भूमि दूसरा शशि है,
कोई शशि से जा देखे।।२४२।।

हो गई धूल, निज छिव को,
फिर भी न खो सकी पृथिवी।
संसृति की पंखुरियों पर,
है बँूद आेस की पृथिवी।।२४३।।

देखता शून्य में यकटक,
मेरा विचार भूखा सा।
माँगती तृप्ित-मधुरियाँ,
मेरी अतृप्त जिज्ञासा।।२४४।।

यह गोल-गोल पिंडो से,
पूरित खगोल कैसा है?
शशि के पीछे तारे हैं,
तारों के पीछे क्या है?।।२४५।।

मानव शरीर में कैसे,
सौन्दयर्-सृष्टि होती है।
हत-हृदय हिला देने में,
क्यों सफल दृष्टि होती है।।२४६।।

किसकी किरणों का यौवन,
है इन्दर्-धनुष में झलका।
किससे परमाणु बने हैं,
क्या है उदगम पुदगल का।।२४७।।

फल-फूल-छाल-दल देकर,
भू-सुरतरू बन जाता है।
किससे विकास पाते ही,
अंकुर तरू बन जाता है।।२४८।।

अंगो में भस्म रमा कर,
झूमती पवन चलती है।
किससे वियोग में प्रतिपल,
धूमिल पावक जलती है।।२४९।।

वसुधा है विसुध, हृदय में,
सुधियों का शासक पैठा।
किस पर सवर्स्व लुटाकर,
आकाश शून्य बन बैठा।।२५०।।

जल के उज्ज्वल कण किसकी, मुसकानो से चालित है।
वह कौन शक्ति है जिससे, यह पंचतत्व पालित है।।२५१।।

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